Saturday 26 February 2011

संपतलाल पुरोहित - फिल्म पत्रकारिता के पितामह

दिल्ली के दरियागंज में सात नंबर मकान का एक कमरा। संपतलाल पुरोहित का आखिरी दिनों में यही  पता था। अकेले रहते थे। एक नेपाली नौकर उनकी सेवा में होता था। पत्नी और बेटे पहले ही दुनिया से कूच कर चुके थे। जीवन के आखिरी दिनों में कई अखबारों में कालम लिखते , उससे आने वाले पैसे से उनका जीवन चलता था। 

पांच दशक से  ज्यादा फिल्म पत्रकारिता करने वाले पुरोहित जी फिल्म पत्रकारिता की चलती फिरती लाइब्रेरी थे। महबूब,  कुंदनलाल सहगल, पृथ्वी राजकपूर, राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद से लेकर नई पीढ़ी के सितारों निर्माता निर्देशकों की कहानी उनसे सुनी जा सकती थी। एक बार उन्होंने बताया कि एक प्रेस कान्फ्रेंस में धर्मेंद्र अपने बेटे सन्नी दयोल के साथ आए। सन्नी की पहली फिल्म बेताब आने वाली थी। धर्मेंद्र ने कहा पुरोहित जी के पांव छूकर आशीर्वाद लो। और सन्नी उनके चरणों में झुक गए। कुछ ऐसा था फिल्मी सितारों का एक पत्रकार के प्रति सम्मान। 

लगभग चालीस सालों  तक उन्होने एक फिल्म पत्रिका युगछाया का सफल संपादन किया। पुरोहित जी पहले प्रसिद्ध फिल्म पत्रिका चित्रपट के संपादक थे। 1947 में उन्होने युग छाया शुरू की और 1978 तक सफलता पूर्वक निकालते रहे। पुरोहित जी मध्य प्रदेश के धार शहर के रहने वाले थे। बचपन से ही फिल्मों में रूचि थी। सो फिल्म पत्रकार बन गए। आओ बच्चों तुम्हे दिखाएं...और ए मेरे वतन के लोगों लिखने वाले कवि प्रदीप के शिष्य रह चुके थे। पुरोहित जी हमारे समाचार पत्र कुबेर टाइम्स में एक सिनेमा पर एक नियमित कालम लिखते थे। एक बार संदेशवाहक की जगह मुझे खुद उनका कालम लाने जान पड़ा। इसी दौरान पुरोहितजी से आत्मीय परिचय हुआ।उसके बाद हर हप्ते मैं ही उनसे कालम लेने के लिए जाने लगा। इसके पीछे मेरा लोभ था। मुझे उनसे घंटेभर बातचीत का मौका मिलता और मैं उनसे सिनेमा के बारे में ढेर सारी जानकारियां लेता।

 दिल्ली में उनके समकालीन ब्रदेश्वर मदान, बच्चन श्रीवास्तव जैसे फिल्म पत्रकार थे लेकिन पुरोहित जी में बाल सुलभ सहजता थी। अपने आखिरी दिनों तक सांध्य टाइम्स में उनका नियमित कालम फिल्मी सवालों के जवाब का आता था जो काफी लोकप्रिय था। जब तक जीए पुरोहित जी पूरी आशावादिता के साथ लिखते रहे। जिंदगी ने उनसे बहुत कुछ छिना लेकिन फिर भी जीवन से कोई शिकायत नहीं थी। बुरे लम्हों को याद नहीं करते थे। हसीन लम्हों को याद कर खुश होते....जीवन चलने का नाम.....और एक दिन वे हमें छो़ड़कर चले गए।
- विद्युत प्रकाश मौर्य   

1 comment:

रतन चंद 'रत्नेश' said...

याद कराने के लिए धन्यवाद।