Sunday 16 November 2014

नए जमाने का ड्रेस कोड ( व्यंग्य)

जब कभी आप दिल्ली की मेट्रो में चलें या फिर दिल्ली विश्वविद्यालय सड़कों पर तब आप बखूबी महसूस कर सकते हैं कि नए जमाने का ड्रेस कोड क्या है। जी हां, नए जमाने का ड्रेस कोड है शार्ट्स और टी शर्ट। या इसे आम बोलचाल की भाषा में कहें तो नेकर और बनियान है। अगर आप बाबा आदम की फिल्में देखें तो लड़कियां साड़ी पहन कर कालेज जाती दिखाई देती थीं तो लड़के धोती...उसके बाद का दौर आया सलवार सूट का..जमाना बदला बेलबाटम आया..उसके जींस...फिर कालेजों में दिखाई देने लगा...स्कर्ट-टॉप। लेकिन अब जमाना और आगे निकल चुका है। अब बारी है शार्टस और बनियान की। अगर हम किसी फिल्म में कॉलेज का दृश्य देखते हैं तो ये लगता है कि वे अंग प्रदर्शन करते हुए कपड़े फिल्म को ग्लैमरस बनाने के लिए दिखाते हैं। लेकिन फिल्म बनाने वाले अगर आकर दिल्ली यूनीवर्सिटी का कैंपस या मेट्रो ट्रेन देखें तो उन्हें लगेगा कि इस नए जमाने के ड्रेस कोड से उन्हें ही कुछ सीखने की जरूरत है।

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अब कालेज में पढने वाली बालाओं ने गांधीवाद से प्रेरणा ली है। गांधी जी भी कम कपडे पहनते थे। वे एक धोती को ही लपेट लेते थे। अब एक मिनी स्कर्ट या शार्ट और बनियान भी उतने ही कपड़े में तैयार हो जाता है। यानी गांधी जी से प्रेरणा लेकर कपड़े की बचत...ये अलग बात है कि गांधी जी की ये सीख देर से पल्ले पड़ी। चलो कुछ तो अच्छी चीज सीखी। इन कपड़ों के कई फायदे हैं। ये इको फ्रेंडली हैं। कपड़ों की बचत होती है...तो पेड़ पौधे कम काटे जाएंगे। तो हुई न पर्यावरण की रक्षा। शऱीर को भी ज्यादा भारी भरकम कपड़ों को ढोना नहीं पड़ता है। इसके साथ ही दूसरा बडा फायदा है कि कम कपड़ों में शरीर की सुंदरता बेहतर ढंग से उभर कर आती है। अब कोई देखता है तो देखता रहे....वैसे भी हर सुंदर चीज तो देखने दिखाने के ले ही होती है। भला छुपने छुपाने की क्या बात है। जाने माने प्रकृतिक चिकित्सक एडोल्फ जस्ट ने कहा था कि आदमी को ज्यादा से ज्यादा समय प्राकृतिक अवस्था में रहना चाहिए। जैसे जंगल में ऋषि मुनि और उनके आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने वाले लोग कम कपड़ों में रहा करते थे।नई उम्र को नवजवानों ने भी इसी कथन से प्रेरणा ली है। इसलिए अब कपडों का आकार भी छोटा होता जा रहा है। नए जमाने के फैशन डिजाइनर भी कम कपड़ो वाले ही डिजाइन तैयार कर रहे हैं। अब फैशन डिजाइनर भी गांधी से प्रेरणा लेकर कम कपड़ों में अच्छे ड्रेस डिजाइन करना सीख गए हैं।

अब कॉलेज जाने वाले नई उम्र के लोग क्या करें पूरी तरह से प्राकृतिक अवस्था में रह नहीं सकते ना...इसलिए कपड़ों का आकार और छोटा करते जा रहे हैं। लेकिन जीवन की ये रीत भी प्राकृति के करीब है। कई लोगों को ट्रेन बस में घूरने की आदत होती है। लेकिन अब कम कपड़ों में फुदकती इन परियों को घूरने वालों से कोई परेशानी नहीं होती....आखिर कोई कब तक घूरेगा...अंत में घूरने वाले को शर्म आ जाएगी। वैसे आपकी नजर फिसलती है तो फिसले मेरी बला से...क्या फर्क पड़ता है। -    --


-----विद्युत प्रकाश मौर्य

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